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बुधवार, 15 जनवरी 2020

सच्चा प्रेम व मोह में अंतर जाने/sachcha Prem aur Moh me antar jane

प्रेम और मोह में अंतर 
  

प्रेम में प्रेम देनेवाले की प्रसन्नता का ध्यान रखा जाता है। मोह में प्रेम को अपनी इच्छानुसार चलाने की ललक रहती है। मोह तब प्राप्त होता है जब मनोरथ की पूर्ति होती है। व्यवधान आने पर खीज और झूँझलाहट  होती है। इसके विपरीत प्रेम में चाहने का, पाने का कोई प्रश्न ही नहीं रहता।

जिसमें प्रेमदेनेवाले को सुविधा और प्रसन्नता अनुभव हो वही सोचना उचित लगता है और  वही करने की आकाँक्षा उठती है। मोह में प्रेमदेनेवाले पर यह दबाव डाला जाता है, कि वह इच्छानुकूल कार्य करे। पर प्रेम में अपने को ही उसके अनुसार  चलने व ढलने के लिए इन्सान उत्साहित रहता है।


मोह अन्धकार में भटकता है। उसमें भय, आशंका, असफलता की सम्भावना बनी रहती है पर प्रेम तो शाश्वत है उसमें सफलता के अतिरिक्त और कहीं कुछ भी नहीं। प्रेम एकाँगी होता है। वह अपने पक्ष में ही परिपूर्ण होता है। दूसरा उसे स्वीकार करता है या अस्वीकार इससे सच्चे प्रेमी की स्थिति में कोई अन्तर नहीं आता।

Sachcha Prem v Moh men antar


 वह अपने प्रेम पक्ष को अपने में पूर्ण मानता है और विश्वास करता है कि प्रतिमा का कोई प्रत्युत्तर न मिलने पर भी उसकी साधना की गति में कोई अन्तर  नहीं आता है: जैसे मीरा के “गिरधर गोपाल” एकांगी थे। पत्थर मुर्ति में से जीवन्त कृष्ण का सृजन मीरा की एकांगी श्रद्धा ने ही सम्पन्न कर लिया था।



प्रेम अपने आप में आनन्द से ओत-प्रोत है। उसकी उपलब्धि के बाद और कुछ पाने योग्य  नहीं रह जाता। प्रेम अपने अतिरिक्त और कुछ किसी को नहीं देता और वह प्रेमी के अलवा  कुछ  भी स्वीकार नहीं करता। मोहशक्ति कामनाओं के ही जाल में उलझी रहती है। यह जो चाहता है वह प्रेमी नहीं हो सकता।

लेन-देन की यदि कुछ प्रेमी और प्रेमदेनेवाले के बीच गुंजाइश भी है तो इतनी ही कि, वह दिया हुआ दुःख शिरोधार्य करता है और अपने सुखों को निछावर करने से पीछे नहीं हटता। प्रियतम का दिया दुख भी सहर्ष स्वीकार कर अपना सुख देकर प्रसन्न रहता है।

जिस प्रकार अपने शरीर मन का क्रिया-कलाप हर घड़ी ध्यान में रहता है इसी प्रकार प्रेमी भी रोम-रोम में समाया रहता है, उसी के लिये सारी क्रियाएं होती हैं, उसी को प्रसन्न करने के लिये मस्तिष्क में  सोचता रहता है। ऐसी दशा में हर घड़ी उसी का स्मरण  होता रहता है।

Sachcha Prem v moh men  antar Jane 





चन्दन वृक्ष के गन्ध की तरह प्रेम भावना निरन्तर फैलती रहती है ।उसका रसास्वादन करने का उस क्षेत्र के सभी प्राणधारी को अवसर प्रदान होता रहता है। प्रेम का विस्तार सहजता, सरलता, सहानुभूति, उदारता, करुणा, सेवा और आत्मीयता की सद्भावनाओं में विस्तृत होता चला जाता है।

 प्रेमी की सहज प्रवृत्ति यह होती है कि दूसरों के दुखों को बाँट लेने के लिए अपने सुखों को वितरित करने के लिए आतुरता एवं अनुकूलता अनुभव करे। परन्तु मोह ठीक विपरीत होता है
अंत में मैं यहीं कहूंगी कि जहां प्रेम समर्पण करता है, वही मोह पाने की प्रबल इच्छा शक्ति रखता है।
     
                          धन्यवाद पाठकों
                      रचना-कृष्णावती कुमारी
                  

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