प्रकृति का कहर गरीबों पर
बड़ा दर्द होता है जब कपकपाती ठन्ढ पड़ती ।
पतली गमछा से ढंके वदन ना जाये शरदी !
बड़ा दर्द होता है! जब वो तपती गरमी सहते
रोटी के जुगाड़ में इधर-उधर घूमते।
जब टपके छपर से पानी
कभी किनारे कभी बीच में
इधर छुपाते उधर छुपाते
अपना राशन पानी।
पांव था नंगा गरम धूप में,
लतपथ वदन पसीने में।
कभी सिर पर ईंट उठाते
कभी छुपते जीने में!
हे प्रभो! ऐसा दर्द ना दें मानव को
बड़ा दर्द होता है !
जो इस पथ से गुजरा हो,
उसे सहन नहीं होता है !
मैं भी इस दर्द से गुजरी हूं,
सह धूप घाम पानी पत्थर।
तब जाके कहीं,
मैं निखरी हूं।
धन्यवाद पाठकों
रचना-कृष्णावती
Plz like share
जवाब देंहटाएं